काव्यप्रयोजन
काव्यप्रयोजन
प्रयोजन का
अर्थ है उद्देश्य – कोई भी कार्य बिना प्रयोजन के नहीं किया जाता | माना जाता है कि
-
“प्रयोजनं
विना तु मन्दोऽपि न प्रवर्तते |”
काव्य प्रयोजन
के विषय में संस्कृत आचार्यों का मत :
1. आचार्य
भरतमुनि के अनुसार – भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में लिखा है
–
“धर्मं यशस्यं
आयुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् | लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति ||”
अर्थात् एक
नाटक (नाट्य काव्य ) लेखन के निम्न छह प्रयोजन माने जा सकते हैं –
1 धर्म
2 यश
3 आयु
4 हित
5 बुद्धि का
विकास
6 लौकिक ज्ञान
अन्य स्थान
पर वे लिखते हैं –
दु:खार्तानां
श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्वीनाम् | विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति
||”
अर्थात् दु:खार्त
, श्रमार्त एवं शोकार्त व्यक्ति को सुख और शांति की प्राप्ति ही काव्य लेखन का प्रयोजन
है |
2. आचार्य
भामह के अनुसार – भामह की रचना काव्यालंकार के अनुसार काव्य प्रयोजन है
–
“धर्मार्थकाममोक्षेषु
वैचक्षण्यं कलासु च | करोति कीर्तिं प्रीतिञ्च साधुकाव्य निबन्धनम् ||”
अर्थात् आचार्य
भामह ने काव्य के निम्न प्रयोजन स्वीकार किए हैं –
1 पुरुषार्थ
चतुष्टय ( धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) की प्राप्ति
2 कलाओं में
निपुणता
3 कीर्ति
(यश ) और प्रीति (आनंद ) की प्राप्ति |
3. आचार्य
मम्मट के अनुसार – आचार्य मम्मट ने अपनी रचना ‘काव्यप्रकाश’ में काव्य प्रयोजनों
को इस प्रकार व्यक्त किया है –
“काव्यं यशसेऽर्थकृते
व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये | सद्यः परिनिर्वृत्त्ये कान्तासम्मितयोपदेशयुजे
||
मम्मट के अनुसार
काव्य के छह प्रयोजन हैं , जो इस प्रकार हैं –
1 यश प्राप्ति
2 अर्थ प्राप्ति
3 लोक व्यवहार
का ज्ञान
4 अनिष्ट का
निवारण
5 आत्मशांति
6 कान्तासम्मित
उपदेश
1. यश
प्राप्ति – काव्य लेखन से कवि को यश प्राप्त होता है और वह सदा के लिए अमर हो
जाता है |
2. अर्थ
प्राप्ति – काव्य लेखन से कवि को अर्थ अर्थात् धन की प्राप्ति होती है
|
3. लोक
व्यवहार का ज्ञान – इसका संबंध पाठकों से है अर्थात् एक श्रेष्ठ काव्य के पठन
से पाठकों को मानवोचित शिक्षा प्राप्त होती है |
4. अनिष्ट
का निवारण – यहाँ ‘शिवेतर’ का अर्थ है – अमंगल और ‘क्षतये’ का अर्थ है – विनाश
अर्थात् काव्य लेखन से कवि के एवं काव्य के पठन से पाठक के अनिष्ट का निवारण होता है
|
5. आत्म
शांति – इसका संबंध मुख्यत: पाठक से है अर्थात् काव्य पठन से पाठक को पढ़ने के
साथ ही आनंद का अनुभव होता है और उसे परम शांति की प्राप्ति होती है |
6. कान्तासम्मित
उपदेश – उपदेश तीनप्रकार के माने जाते हैं –
(क) प्रभु
सम्मित उपदेश – ऐसा उपदेश जो हमारे लिए हितकर तो होता है ,परन्तु रुचिकर नहीं होता
, वह प्रभु सम्मित उपदेश कहलाता है |
(ख) मित्र
सम्मित उपदेश – यह उपदेश हितकर भी होता है और रुचिकर भी ,परन्तु इसकी अवहेलना भी की
जा सकती है |
(ग) कान्तासम्मित
उपदेश - यह उपदेश हितकर भी होता है और रुचिकर भी होता है तथा इसकी कभी अवहेलना भी नहीं
की जा सकती है | काव्य का उपदेश इसी श्रेणी का उपदेश माना जाता है |
4 आचार्य
विश्वनाथ के अनुसार – विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ ‘साहित्यदर्पण’ में काव्य प्रयोजनों
का विवेचन इस प्रकार किया गया है –
“चतुर्वर्गफलप्राप्ति:
सुखादल्पधियामपि | काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरुप्यते ||”
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निजभार्या रजतमिव अपरस्य भार्या सुवर्णमस्ति । निजकासः कासोऽस्ति, अपरस्य कासः कोरोनास्ति
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