संस्कृतसप्ताह: आओं संस्कृत सींखे (Let's Learn Sanskrit)

संस्कृतसप्ताहः

            १ वर्णपरिचयः 


अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ 

यह नौ स्वर हैं। इसमें अ इ उ ऋ के काल के अनुसार ३ भेद। ह्रस्व अ, दीर्घ आ और प्लुत अ३। (प्लुत मतलब 3 मात्रा तक स्वर खींचना)। वैसे इ ई और ई३। उ ऊ और ऊ३। ऋ के भी वैसे। लृ का दीर्घ नहीं। ए ओ ऐ औ को ह्रस्व नहीं। 

व्यञ्जन

कु चु टु तु पु ऐसे फॉर्मूला है। 

कु से क् ख् ग् घ् ङ् 

चु से च् छ् ज् झ् ञ् 

टु से ट् ठ् ड् ढ् ण्

तु से त् थ् द् ध् न् 

पु से प् फ् ब् भ् म्

(ङ् को ग् और नासिक्य योजके बोलते हैं।

ञ् को तालु से यानि के दाँत और मुँह की छत के बीच जो खड्डा है वहाँ से बोलते हैं। )

य् र् ल् व् श् ष् स् ह् 

(श् शक्कर वाले जैसे। स् समुद्र के स् जैसे। 

ष् में थोड़ा जीब को मोड़के मुँह की छत तक ले जाओ, उच्चतम भाग से बोलो, गहरा नाद निकालो।)

अयोगवाह

उसमें कुछ छूट गया। विसर्ग (ः) और अनुस्वार (ं)। ये विसर्ग और अनुस्वार अयोगवाह कहलाते हैं। स् और र् के स्थान पे आने वाला ः होता है। जैसे प्रातर् मूल शब्द है, र् के स्थान पे ः होके प्रातः बनता है।

म् और न् के स्थान पे आने वाला ं अनुस्वार होता है। हैसे सम्+(स्)+कृत में म् को ं होके संस्कृत बनता है। अनुस्वार का उच्चारण म् और न् के बीचका और केवल नाक से होता है। होठों को छुए बिना म् बोलने की कोशिश करो तो अनुस्वार हो जायेगा। म् बोलने का प्रयास करें, किन्तु पूरा बोले नहीं, होठ पास लाके जो केवल नाक का नाद है वही अनुस्वार है।
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                 वर्णपरिचय: -२

त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः ।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा ।। ३ ।।

63 या 64 वर्ण शिव के मत में मान्य हैं। प्राकृत और संस्कृत दोनों में ही यह स्वयम्भु ब्रह्मा के द्वारा उच्चारित हैं।

(आजका व्याकरण पाणिनि का माहेश्वरसूत्रों पे आधारित है अतः महेश्वर शिव के मतमें 63 या 64 वर्ण हैं।)

________________________________

स्वरा विंशतिरेकश्च स्पर्शानां पञ्चविंशतिः ।
यादयश्च स्मृता ह्यष्टौ चत्वारश्च यमाः स्मृताः ।। ४ ।।

स्वर 21 हैं। और क् से म् तक स्पर्श वर्ण कहलाते हैं, वे 25 हैं। य् से ह् तक 8 वर्ण हैं। और यम 4 हैं।

स्वर 21 अ इ उ ऋ (प्रत्येक के ह्रस्व दीर्घ प्लुत 3 भेद) तो कुल बारह। ए ओ ऐ औ (प्रत्येक के दीर्घ और प्लुत भेद) = कुल  8। लृ 1 (लृ के दीर्घ और प्लुत नहीं)। 12+8+1=21। 
_
कु चु टु तु पु (प्रत्येक वर्ग में 5 वर्ण)  = क् से म् तक 25 स्पर्श वर्ण। 

यादि य् से ह् तक 8 वर्ण।

चार यम (अलग concept है)। 4
21+25+8+4= 58


अनुस्वारो विसर्गश्च „क „पौ चापि पराश्रितौ ।।
दुःस्पृष्टश्चेति विज्ञेयो ऌकारः प्लुत एव च ।। ५ ।।१ ।।

(अनुस्वार यानी ं विसर्ग यानी ः, जिह्वामूलीय और  उपध्मानीय ये 4 अयोगवाह। अनुस्वार विसर्ग पिछले पोस्ट में जाने हैं, बाकी के दो अर्धविसर्ग जैसे बोले जाते हैं।  दुःस्पृष्ट यानी ळ = 1 और प्लुतलृकार 1)। 4+1+1=6।
58+6=64।।

ये कुल चौसठ वर्ण संस्कृत में हैं।
लृकार का जो आचार्य प्लुत भेद नहीं मानते उनके मत में 63 वर्ण हैं।


संस्कृतसप्ताह: 
Day 3

                   अनुस्वार कहाँ? म् कहाँ?  

अन्त में हमेशा म् लगाओ।
सुन्दरम्। पुष्पम्। √
सुन्दरं । पुष्पं । ×

आगे स्वर हो तो म् लगाओ।
सुन्दरम् अस्ति। पुष्पम् अस्ति। √
सुन्दरं अस्ति। पुष्पं अस्ति। ×

जब आगे व्यञ्जन हो तो ही अनुस्वार लगाएँ। (जैसे शं करोति)
उसमें भी अगर र् श् ष् स् ह् परे हो तो नित्य।
संरम्भ,संशय, संसकृत, संहार √
सम्रम्भ ×।

अगर दो शब्द की सन्धि हो के एक शब्द बनाओ, और क् से म् परे हो तो ऐच्छिक है अनुस्वार। 
अहं+कार =अहङ्कार/अहंकार।
सम्+चय = सञ्चय/संचय, संटीकते  संताप/सन्ताप, संपर्क/सम्पर्क आदि।।

यदि सन्धि न करो तो व्यञ्जन परे रहते अनुस्वार ही। 
अहं तत्र अस्मि। √
अहम् तत्र अस्मि। ×
अहन्तत्र अस्मि। √

अगर सन्धि से एक शब्द न बना हो, स्वाभाविक एक शब्द हो, तो अनुस्वार नहीं लगा सकते।
सुन्दरम् √
सुंदरम् ×
अन्तिमः √
अंतिमः ×


संस्कृतसप्ताह:
Day 4

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                संस्कृत का इतिहास

संस्कृत अनादि भाषा है। वेद अनादि अनन्त हैं। वेदों का कोई कर्ता नहीं, ईश्वर भी नहीं बनाता इन्हें। नारायण के निःश्वास से वेद हर कल्प के आदि में स्वतः अनायास प्रकट होते हैं, पितामह ब्रह्मा उन वेदों का तपश्चर्या समय ग्रहण करते हैं। फिर अपने चार मुखों से वे वेदपाठ करते रहते हैं जिसे वे अन्य देवों को सिखाते हैं। भूमि पर ऋषि इन्हीं वेदों का दर्शन करते हैं अतः ऋषियों को “मन्त्रद्रष्टा” यानि के मन्त्र का साक्षात्कार करने वाला कहते हैं।  

वेदों से ही संस्कृत भाषा बनाई गई है। संस्कृत में ही कृत शब्द का प्रयोग होने से संसकृत अनादि होते हुए भी बनाई गयी है। यह बात कुछ समय में समझेंगे। पहले संस्कृत शब्द की व्युत्पत्ति समझ लेते हैं। 

सम् + कृत। इसमें सम् उपसर्ग है जिसका अर्थ सम्यक्, ठीक, सुन्दर, व्यवस्थित, ऐसा होता है। कृत का अर्थ है बना हुआ। अच्छे से बना हुआ, इस अर्थ में तो केवल संकृत बनना चाहिए। बीचमें स् कहां से आया?

“संपरिभ्यां करोतौ भूषणे” इस सूत्र से भूषण 

यानि सजाना, decorate करना इस अर्थ में बीच का “स्” आया है। यह मात्र बनी हुई भाषा नहीं, सुव्यवस्थित, सुभूषित, सुघटित सजी हुई, decorated भाषा है। अतः इसका अर्थ 

“well-decorated” या “well-organized” होना चाहिए।

इसका कारण है कि वैदिक भाषा अनादि होने से बोली नहीं जा सकती। वह सुव्यवस्थित या समान नियमों वाली नहीं। उसमें केवल अन्दाजें से हम समझते हैं कि यहाँ ये हिसाब लगाया होगा, अतः “छन्दसि बहुलम्” (irregular in vedas) यह सूत्र 15 बार से अधिक पढ़ा गया है। 

जैसे कोई पुस्तक कबाट में जमी हुई बढ़िया तरह से रखी हों तो उस व्यवस्था को देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि किसी मनुष्य ने बढ़िया सजाके इन्हें जमाया है, संस्कृत किया है। लेकिन यदि यह पुस्तकें बिखरी पड़ी हों और अव्यवस्थित हों तो हम समझ सकते हैं कि यह स्वतः बिखरी पड़ी है, लगता है ध्यान देने वाला कोई है नहीं। 

इसी तरह वेदों की संस्कृत को केवल मनुष्य हिसाब लगाके समझ सकता है। पाणिनि की मेधा genius थी कि उन्होंने irregularity को भी classify कर दिया। लेकिन रोबोट को वेद पढ़ाओ तो वो समझ न सकेगा। इतने सारे प्रयोग individually याद करना और कौनसी जगह कैसा अर्थ यह मनुष्य बुद्धि ही हिसाब लगाके समझ सकती है। किन्तु लौकिक संस्कृत इससे विपरीत है।  लौकिक संस्कृत computer के हिसाब की भाषा है। वह एकदम सुव्यवस्थित है और हिसाब में पक्की। मनुष्य लौकिक सीखले तो वैदिक का बुद्धि से बढ़िया हिसाब लगा लेगा, रोबोट यह न कर पाएगा लेकिन बिना किसी गलती के लौकिक संस्कृत लपालप बोलेगा। यही संस्कृत का इतिहास है, कि वेदों से यह निकलके एकदम सुव्यवस्थित हो गई है।

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संस्कृतसप्ताहः (5)
Day 5
           
                     विभक्ति

विभक्ति हमेशा लगाओ। रामः के अन्त का  ' : '  रामेण का एण, रामस्य का स्य ये सब विभक्ति हैं। विभक्ति लगाए बिना शब्दों का वाक्य में प्रयोग हो नहीं सकता संस्कृत में जो शब्द का original form होता है, उसे शब्द कहते हैं। राम शब्द है, "रामः" पद है।

वाक्य में प्रयोग करने के लिए शब्द यानि original form में कुछ परिवर्तन होते हैं, क्योंकि शब्द अकेला यह नहीं बता सकता उसका वचन क्या है, राम सुनने से कितने राम हैं? ये पता न चलेगा।
लेकिन "रामः" सुनने से 1 राम है ये पता चलेगा। दूसरी बात बिना विभक्ति के राम क्या है? ये भी पता चलेगा नहीं। राम कर्ता है, कर्म है सम्प्रदान है, या क्या है? लेकिन “रामस्य" कहने से "राम का" ऐसा बोध होगा, यानि राम किसीका सम्बन्धी है।
“रामः” सुनने से "राम कर्ता है", यानि स्वतन्त्र होके कोई काम करता है, ऐसा ज्ञान होगा। आगे उदाहरणों से स्पष्ट होगा। शब्द अकेला “क्या" और "कितना" का उत्तर देगा नहीं, विभक्ति से जुड़के दोनों सवालों का जवाब मिलेगा। इसलिए ऐसे
“पद” का ही प्रयोग वाक्य में होता है।
जैसे “रामः उत्तम पुरुषः अस्ति” इसमें उत्तम में विभक्ति डाली नहीं। “उत्तमः पुरुषः" ये सही है। अत्र “गोविन्द गौः अस्ति" इसमें गोविन्द लटक गया न ? गोविन्द की गाय बोलना हो तो "गोविन्दस्य" गौः अस्ति। ऐसे कहना चाहिये। गर्गादि ऋषयः सन्ति (गर्गादि ऋषि हैं) । यहाँ फिर आदि में क्या वचन क्या कारक कुछ बोध हुआ नहीं, "गर्गादयः ऋषयः” बोलना चाहिये। ऐसे सभी जगह original form से कुछ न कुछ विभक्ति लगाके उसका वचन और कारक बताना पड़ता है। वरना अकेला शब्द लटक जाएगा। लेकिन सब जगह विभक्ति दिखे ऐसा जरूरी नहीं। कहीं गायब हो जाए तो अन्दाज लगा लेते हैं कि
पहले आई थी, अब कोई नियम से गायब हो गई। 
जरूरी नहीं के एक विभक्ति से fix एक ही अर्थ का बोध हो। जैसे सब स्कूल में सिखाते हैं “कर्ता ने कर्म को करण से" ऐसा भी न सोचो। यह कल और परसों कारक में समझेंगे। विभक्ति वो प्रत्यय हैं जो वचन बताते हैं और कभी कारक
बताते कभी कारक के अलावा दूसरे अर्थ भी बताते। “रामेण सह" means राम के साथ, यहाँ एण का अर्थ साहचर्य/togetherness है। रामाय नमः, कृष्णाय नमः वगेरह में "आय" का भी कारक-specific अर्थ नहीं। दुनिया के
जितने अर्थ हैं उनको सात ग्रुप में विभाजित कर दिया है, इसलिए एक "आय" से या “एन” से अनेक अर्थ बोले जाते हैं। कुछ कारक कुछ उससे भिन्न है।
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संस्कृतसप्ताहः (6)
Day 6

                     कारक

कर्तृस्वतन्त्रे प्रथमातृतीये रामो जघानाभिहतो हि तेन।।
रामं भजे कर्मणि च द्वितीया दुह्याच्पचादौ तु विभाषया सा।।

कारक हमेशा क्रिया के जनक होते हैं। क्रिया सुनते ही कौन क्या किससे ऐसी सब आकाङ्क्षा होगी, उसमें क्रिया को पैदा करने वाले कारक जवाब रूपसे आएँगे। कर्ता यानि अपनी इच्छा से कुछ क्रिया पैदा करने वाला। देवदत्त पकाता है, यहाँ देवदत्त कर्ता है। बाकी सारे कारक कर्ता पे निर्भर हैं, अगर देवदत पकाए नहीं, तो पकोड़ा कर्म न होगा, कढ़ाई करण/tool न होगी और रसाई अधिकरण/location न होगी। जब कहो कि “इन्द्र को वेद सिखाता है" तो वेद कथित और इन्द्र अकथित कर्म है, इन्द्र में चतुर्थी लगनी थी अब वैकल्पिक/optional द्वितीया भी लगेगी। 

हेतौ तृतीया करणेपवग्रे सहे विकारे त्वितिलक्षणे च।
पुण्येन दृष्टः स खगेन चाहन् पित्रागतोना गत ईक्षणेन ।।

करण यानि स्वतन्त्र कर्ता जिसे इस्तेमाल करके क्रिया सिद्धि करता है, वो साधन या करण अर्थ में तृतीया हो। “खगेन अहन्” यानि बाण से मारा। कर्ता में भी तृतीया होती है वो जान चुके। अब हेतु देखो। “पुण्येन दृष्टः हरिः” हरि बड़े पुण्य से दिखे || यानि पुण्य हेतु है हरि के दर्शन में। करण कारक है अतः उसे क्रिया का जनक होना चाहिए, और व्यापार (motion) वाला होना चाहिए। लेकिन हेतु का व्यापार वाला होना या क्रियाजनक
होना जरूरी नहीं, वो निमित्त हो सकता है। दण्डेन घटः। यहाँ दण्ड घट में हेतु/निमित है। क्योंकि घट क्रिया नहीं। पुण्य से दर्शन (क्रिया) होती किन्तु पुण्य कोई दण्ड जैसी स्थूल वस्तु नहीं जिसमें व्यापार (motion) हो।
सह यानि साथ शब्द के योग में तृतीया। ये अलग type की है, यह कारक अर्थ में विभक्ति न होके एक शब्दविशेष के योग में हो रही है। अतः इसे उपपद विभक्ति (पास में पढ़ा हुआ पद - उपपद, उसी के योग में, नकि किसी अर्थविशेष में। अर्थ चाहे कुछ भी लगाओ। यह शब्द बाजू में दिख गय मतलब ये वाली विभक्ति लगाओ।) सह बाजू में दिखे तो तृतीया लगाओ = पुत्रेण सह आगतः (पुत्र के साथ आया)। इसका अर्थ साहचर्य/togetherness है।
अपवर्ग = अना गतः यानि एक दिन में सीख लिया। जब फल की प्राप्ति जल्दी होए तो तृतीया लगाओ, प्राप्ति न हो तो द्वितीया। "मासम् अधीतो नायातः” (एक महीना सीखा फिर भी नहीं
आया।) 

क्रमशः...

संस्कृतसप्ताह: 
Day 7

                 कारक (२)

काणस्तपस्वी च जटाभिरेवम् दाने चतुर्थी रुचिप्रीयमाणे । समर्पणे चाथ निवेदने च तादर्थ्यकेऽलनमआदियोगे ।। 
तुभ्यं ददे राम समर्पयामि ब्रवीमि पृच्छामि निवेदयामि
त्वं राचसे मेऽघहरे नमस्ते श्वसामि खादामि जुहोमि तुभ्यम् ।।

अक्ष्णा काणः यानि आँख से काणा, पार्दन खञ्जः यानि पाँव से लूला है, ऐसे अङ्ग के विकार अर्थ में तृतीया। 
जटाभिः तापसः यानि उसकी जटा होगी तो जरूर तपस्वी होगा। ऐसे "स्वर्णेन श्रेष्ठी" यानि इतना सोना है तो जरूर कोई सेठ होगा।
चतुर्थी दान में करो- जो कर्म यानि जहाँ क्रियाफल बैठे, जैसे पकोड़े तलदो। यहाँ तलने का फल पकोड़े को मिलेगा, लेकिन जिसे कर्ता (पकाने वाला) कर्म से चाहे
वो सम्प्रदान। विप्र को गाय देता है। इसमें गाय तो दी जारही है, वो कर्म है। कर्म से कौन अभिप्रेत (intended) है? विप्र, वोही सम्प्रदान। उसे दे दो। मैं जो बोलता हूँ वो मेरे शब्द हैं, शब्द ही कर्म है लेकिन यह जिसे intended हैं| वो मेरा शिष्य है जो सम्प्रदान है। शिष्याय शिक्षयामि, ब्राह्माणाय ददामि, गुरवे वदामि।

अब जिसमें रुचि/प्रीति हो, वो likable को जो like करे उसमें चतुर्थी लगाओ। प्रीयमाण (like करने वाला) गणेश है, likable (रुचि का विषय) मोदक। मोदकः रोचते गणेशाय = गणेश को मोदक पसन्द है। (अर्थात् गणेश के अन्दर मोदक रुचि को उपजाता है, अतः वो रुचि का कर्ता है। उसमें प्रथमा लगाई। रुचि जिसको हुई उसमें चतुर्थी, वो गणेश में उपजाता है, जिसमें रुचि पैदा होती उसमें
चतुर्थी लगाओ)। 
कृष्णाय रोचते गोपी = कृष्ण को गोपी पसन्द है। ऐसे सर्वत्र जानो। जिसमें प्रीति उपजे उसमें चतुर्थी, जो उपजाए उसमें प्रथमा।

पञ्चम्यपादानदिगादियोगे वार्याभिप्रीते भयभूतिकृत्सु ।
पतेत्तरोः प्राङ् मथुरा ततो ऋते रामाद् बिभेत्याविरभूत् कुशस्ततः ।।

पञ्चमी अपादान में। वृक्षात् पतति = वृक्ष से गिरता है। अवधि यानि देश-काल का हिसाब बोलना तो पञ्चमी, चैत्रात् प्राक्
फाल्गुनः (चैत्र से पहले फाल्गुन), मथुरा प्राक् वङ्गात् (मथुरा बङ्गाल से पूर्व है)। अवधि गुणों में भी हो सकती है, चैत्रः मैत्राद् बलवत्तरः (चैत्र मैत्रसे अधिक बलवान् है)। किसी प्यार के लिए हटाने में = यवेभ्यो गां वारयति (धान से गाय को हटाता है)। किसी से भय हो तो, रामाद् बिभेति (रामसे डरता है)। किसी से
उपज हो तो रामाद् उत्पन्नो लवः (रामसे पैदा हुआ लव)। ऋते के योग में - रामाद् ऋते न मोक्षःवराम बिना मोक्ष नहीं)।


इति !

आशा है कि संस्कृतसप्ताह के 7 दिनों में इन लेखों से आपकी संस्कृत भाषा की आधारशिला निश्चय ही मजबूत हुई होगी। 

धन्यवाद ! 

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