संस्कृत सीखें (Learn Sanskrit) द्वितीय पाठ:

                           ।। द्वितीयः पाठः ।।


       ।। तव-मम, असि-अस्मि, च का परिचय ।।


अहम् - मैं। मम - मेरा।

त्वम् - तुम। तव - तेरा।

किम् - क्या? एव - ही।

आम् /हुम् - हाँ।


त्वं कः असि? (तुम कौन हो?)

अहं यज्ञदत्तः अस्मि (मैं यज्ञदत्त हूँ।)


किं त्वमेव यज्ञदत्तः असि? (क्या तुम ही यज्ञदत्त हो?) <त्वम्+एव=त्वमेव>

आम्। अहमेव यज्ञदतः अस्मि। (हाँ। मैं ही यज्ञदत हूँ।)


(आप त्वम् असि को याद रखने के लिए प्रसिद्ध उपनिषद् वाक्य "तत् त्वम् असि" का स्मरण कर सकते हैं,इससे आपको सदा याद रहेगा त्वम् के साथ असि लगता है।)


त्वं का असि? (तुम कौन हो?)

अहं देवदता अस्मि। (मैं देवदत्ता हूँ।)

किं त्वमेव देवदत्ता असि? (क्या तुम ही देवदता हो?)

हुम् अहमेव देवदत्ता अस्मि। (हॉ। मैं ही देवदत्ता हूँ।)


तव नाम किम् अस्ति? (तुम्हारा नाम क्या है?)

मम नाम रामः अस्ति। (मेरा नाम राम है।)

तव नाम यज्ञदतः अस्ति? (तुम्हारा नाम यज्ञदत्त है?)

न, मम नाम रामः अस्ति, यज्ञदतः मम मित्रम् अस्ति। (नहीं, मेरा नाम राम है। यज्ञदत्त मेरा मित्र है।)


कुछ उदाहरणों का अभ्यास करें।


प्रयुक्तशब्द = छात्र = विद्यार्थी/student. एव-ही/only. अत्र = यहाँ। कुत्र = कहाँ। कुत्र+असि-कुत्रासि

(कहाँ हो?)। अत्र+एव =अत्रैव (यहाँ ही यहीं)। निपुणा = कुशल स्त्री। निपुणः = कुशल पुरुष। पाकः - रसोई।


१) किं त्वम् पण्डितः असि?

नहि, अहं छात्रः अस्मि। (नहीं मैं छात्र हूँ।)

२) त्वं मम गृहे असि। अहं तव गृहे नास्मि। (तुम मेरे घर में हो, मैं तुम्हारे घर में नहीं हूँ।)


३) त्वं कुत्रासि? त्वं विद्यालये नासि। किन्तु अहम् अत्र एव अस्मि। (तुम कहाँ हो? तुम विद्यालय में नहीं हो, लेकिन मैं यहाँ ही हूँ।)

४) त्वं पाके निपुणा असि। अहं भोजने निपुणः अस्मिा (तुम पाक में/रसोई में निपुण हो। मैं भोजन में/खाने में निपुण हूँ।)


५) कथम् असि? (कैसे हो?)

कुशली अस्मि। (कुशली हूँ।) यहाँ त्वम् और अहम् के बिना भी व्यवहार कर सकते हैं, उनका अध्याहार

(उपस्थिति बिना भी ग्रहण) हो जायेगा।

        क्रमश: ...     


            || द्वितीय: पाठ: || १.२


च का प्रयोग:-    च = और। 

वाक्य में च हमेशा च द्वन्द्वव के अन्त में लगता है। 

जैसे - रामः लक्ष्मणः च  = राम और लक्षमण। 

रामः सीता च  = राम और सीता।


ज्यादा हुए तो भी अन्त में ही। 

रामः, लक्ष्मणः, भरतः, शत्रुघ्नः च 

- राम लक्षण भरत और शत्रुघ्न।

हिन्दी में आखरी पद, शत्रुघ्नादि अन्तिम पद के पहले और संस्कृत में पूरे दवन्दव (समूह/collection) के अन्त होने पर च लगाते हैं।


इस श्लोक का अभ्यास करें। 👇


त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुः च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविडं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।


अन्वयः = हे देवदेव! त्वम् एव माता असि, पिता च त्वम् एव असि। त्वम् एव बन्धुः असि, सखा च त्वम् एव असि। त्वम् एव विद्या असि। द्रविडं च त्वम् एव असि। त्वम् एव मम सर्वम् असि।।


अर्थ = हे देवों के देव! तुम ही माता हो, और पिता तुम ही हो। तुम ही बन्धु (भाई) हो और सखा तुम ही हो। तुम ही विद्या हो, और द्रविड/द्रविण (धन, बल या समृद्धि) तुम ही हो। तुम ही मेरे सर्व (सब कुछ) हो।


टिपण्णी = श्लोक में कहीं भी "असि" पद का प्रयोग नहीं। "त्वमेव माता" बस इतना ही। इसलिए हमने "असि" का सभी जगह अध्याहार (जो पद वाक्य में नहीं लेकिन अगर उसका अर्थ है, तो पद की कल्पना

की जाती है, उसी को अध्याहार कहते हैं।) किया है। और, "त्वमेव विद्या द्रविणं" में च नहीं था लेकिन च का अर्थ था अतः अन्वय में च का भी अध्याहार किया है। ऐसा सब जगह देखना चाहिए।

हिन्दी में भी सामान्य उदाहरण = "आ गए?" "हाँ। आ गया। ये दोनों वाक्य अधूरे हैं। 

शुद्ध वाक्य = "तुम आ गए?" 

"हाँ। मैं आ गया।"

हिन्दी में भी हम कई बार वाक्य को सुनकर, हमारी बुद्धि अनुक्त पद की कल्पना कर लेती है, इसी कल्पना को वाक्य में लिखते समय अध्याहार कहते हैं।

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